वे लड़कियों को 'माल' समझते हैं, वस्तु या सामान…
नज़र 'कमर', 'नाभि' और बदन के दूसरे अंगों पर रहती है.
वे गाते हैं और लड़कियों के बदन से खेलते-खेलते इधर-उधर 'तबला' बजाते हैं.
इनके लिए लड़की का कोई अंग 'टमाटर' है तो कोई 'ककड़ी' या 'कटहल'.
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वे इसी पर वाहवाही पाते हैं. यही उनकी शोहरत का राज़ है. उन्हें 'माल' के साथ यह सब 'खेल' करने में मज़ा आता है.
इसे वे अपनी ज़िंदगी की सच्चाई भी मानते हैं. वे सोशल मीडिया पर लाखों फ़ॉलोअर वाले भोजपुरी के पुरुष गायक- कलाकार हैं. इनमें ज़्यादातर की यही कहानी है.
नतीजा, फ़िल्मों या म्यूज़िक वीडियो में ये सब करते-करते वे आम जीवन में भी इसे दोहराने से नहीं चूकते. अक्सर बच जाते हैं. लेकिन कई बार पकड़ में भी आ जाते हैं.
इस बार गायक-कलाकार पवन सिंह पकड़ में आ गए.
पहले कुछ सवालकुछ सवाल हैं. क्या लड़कों/मर्दों का लड़कियों को देखने का नज़रिया कुछ अलग है?
या लड़के या मर्द लड़कियों को इस नज़र से क्यों देखते हैं, जहाँ वो 'माल' नज़र आती हैं?
वह उनके साथ बेख़ौफ़ कुछ भी कहीं भी, कैसे कर लेते हैं? क्या चीज़ है, जो उन्हें यह छूट देती है कि वे ऐसा करते हैं?
कहीं वे इस छूट को अपना हक़ तो नहीं समझते?
बात कुछ यूँ शुरू होती है. एक कार्यक्रम का चंद सेकंड का वीडियो है.
इस वीडियो में पवन सिंह साथी महिला कलाकार के साथ जो कर रहे हैं, वह सोशल मीडिया पर बड़ी बहस की वजह बन गया.
नौबत यहाँ तक आ गई कि उन्हें 'माफ़ी' माँगनी पड़ गई.
वीडियो देखें. पवन सिंह को ऐसा लग रहा है कि वे किसी को ऐसे स्पर्श करेंगे और उनके साथ कुछ नहीं होगा. यह तो उनका हक़ बनता है.
पवन सिंह भी इसे अपने दायरे की हरकत मान रहे थे. यह दायरा, स्त्री को क़ाबू में रखने और मनचाहे तरीक़े से उसे 'इस्तेमाल' करने का है. यह कोई पहली बार नहीं था.
पवन सिंह पर पहले भी ऐसे इल्ज़ाम लगते रहे हैं.
लेकिन बात सिर्फ़ किसी एक पवन सिंह या भोजपुरी फ़िल्मी दुनिया की नहीं है. यह बीमारी, एक बीमार समाज का लक्षण है.
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ऐसी घटनाएँ हवा में नहीं हो जातीं. हमारा सामाजिक तानाबाना स्त्री को दोयम दर्जे का मानता है. वह उसे बराबरी का इंसान नहीं समझता.
उसे मर्द की ख़िदमत की वस्तु समझा जाता है. हम जो अंजलि या किसी और के साथ यह होते हुए देख रहे हैं, वह इसी नज़रिए से निकला है. यानी स्त्री को देखने का एक मर्दाना नज़रिया है.
बॉलीवुड हो या भोजपुरी फ़िल्में, हमें स्त्रियों के साथ उनका यही नज़रिया दिखता है.
यानी स्त्री महज देखने की 'यौन वस्तु' है. वह कुछ अंगों तक सिमटी है. ये अंग भले उसके शरीर के हों, उस पर कब्ज़ा मर्द का है.
वह तय करेगा कि उन अंगों के साथ क्या किया जाए. इसीलिए वह बेख़ौफ़ उन अंगों के साथ जब, जैसे, जहाँ मन करता है, खेलता है.
यह नज़रिया यह भी मानता है कि स्त्री अपने बारे में फ़ैसले नहीं ले सकती या लेने लायक़ ही नहीं है. कम से कम अपने ही शरीर के मामले में तो नहीं है.
चाहे गाने में दिखने वाले सीन हों या फिर स्टेज पर होने वाली हरकत, या फिर आम ज़िंदगी में, घरों में, सड़कों पर... लड़की को यौन वस्तु के रूप में ही पेश किया जाता है या देखा जाता है और मर्द... वह तो यहाँ दबंग मर्दानगी का जीता-जागता रूप है.
उसकी बाँहें मज़बूत होती हैं. सीना चौड़ा होता है. वह छलाँगें लगाता है. लड़की के साथ जो करने का मन होता है, वह करता है.
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ऐसी घटनाओं के असर पर भी ध्यान देना ज़रूरी है.
आमतौर पर पूछा जाता है कि लड़कियों के साथ जब ऐसी एतराज़ वाली हरकत होती है, तो वे उस पल ही जवाब क्यों नहीं देतीं? यह कहना आसान है. ज़्यादातर लड़कियों के लिए यह करना आसान नहीं होता.
उस पल कैसे प्रतिक्रिया दी जाए, वे कई बार समझ नहीं पातीं. ख़ासकर उस हालत में जब उत्पीड़न करने वाला शख़्स जाना-पहचाना हो.
यही नहीं, स्त्रियों को यह भी बचपन से सिखाया जाता है कि ऐसे उत्पीड़न पर प्रतिक्रिया देने की ज़रूरत नहीं है. इतना तो चलता है. नज़रंदाज़ करना सीखें.
वजह, हमारे समाज में स्त्री के ख़िलाफ़ उत्पीड़न या हिंसा को नजरंदाज़ करने, सामान्य मानने और उसे उनकी ज़िंदगी का ज़रूरी हिस्सा मानने की पुरानी परंपरा है.
इस घटना पर अंजलि राघव की लंबी प्रतिक्रिया आईहै. उन्होंने कहा, "… क्या पब्लिक में कोई मुझे ऐसे टच करके जाएगा, उससे मुझे ख़ुशी होगी? मुझे बहुत ज़्यादा बुरा लगा, ग़ुस्सा आया और रोना भी आया. मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या करूँ?"
यहाँ पवन सिंह और अंजलि साथी कलाकार हैं. वे एक साथ काम कर रहे हैं. भरोसा भी होगा. वही व्यक्ति सार्वजनिक तौर पर कुछ ऐसा करने लगता है, जो उसे एकदम नहीं करना चाहिए था.
कई बार इस हालत को समझना, मानना और तुरंत कुछ करना आसान नहीं होता. अंजलि के साथ भी ऐसा ही हुआ. जब वह कह रही हैं, तो इसे न मानने की कोई वजह नहीं है.
यही नहीं, वे बता रही हैं कि वे बोलने से क्यों हिचक या डर रही थीं. उस हिचक में भोजपुरी फ़िल्म की दुनिया में ऐसे पुरुष कलाकारों की मज़बूत पकड़ है.उनके बयान में इसकी झलक दिखती है.
और तो और, पवन सिंह के तो नाम के आगे ही दबंग मर्दानगी की निशानी है. उनके नाम के आगे 'पावरस्टार' लगा है. यह 'पावर' बहुत कुछ बताता है. यह उनके बहुत तरह के 'पावर' की निशानी है.
आख़िरकार इसका खमियाज़ा किसे भुगतना पड़ा या पड़ेगा. ज़ाहिर है, लड़की को. अंजलि राघव के मुताबिक़, उन्होंने तय किया है कि वे अब भोजपुरी फ़िल्मों में काम नहीं करेंगी.
कई बार चुप रहने की वजह यह भी होती है. यानी काम का छूट जाना या अलग-थलग पड़ जाना.
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ज़्यादातर लड़कों या मर्दों को रज़ामंदी/सहमति/कंसेंट नाम के शब्द के मायने अब तक नहीं समझ में आए हैं.
उन्हें लगता है कि कोई लड़की उनके साथ बात कर रही है या हँस-बोल रही है, तो वह उसे किसी भी तरह 'छू' सकते हैं.
उन्हें लड़की की रज़ामंदी की इज़्ज़त करनी नहीं आती. इसकी वजह से उन्हें पता ही नहीं चल रहा है कि वे बिना रज़ामंदी के जो भी कर रहे हैं या करते हैं, वह जुर्म है.
अंजलि भी मानती हैं कि किसी भी लड़की को उसकी सहमति के बिना 'टच' करना ग़लत बात है.
लेकिन यह 'टच' महज़ 'टच' नहीं था. बहस के केंद्र में भी 'टच' या बिना पूछे 'टच' आ गया. टच से लगता है जैसे कुछ छू गया. कोई मासूम सी हरकत.
जैसे बात करते-करते किसी ने अनजाने में किसी की पीठ पर हाथ रख दिया. इस घटना में 'छूना' या 'टच' क़तई मासूम नहीं है. उंगलियों की हरकत बहुत कुछ बयान कर रही है.
इसलिए सवाल यह भी है कि इसे टच कहें या छूना कहें या यौन स्पर्श कहें या कुछ और?
स्त्री की रज़ामंदी के बिना उसे छूना तो दूर, कुछ भी करना जुर्म है. यानी घूरना या जबरन बतियाना भी.
इसे उत्पीड़न, यौन उत्पीड़न या यौन हिंसा ही कहना ज़्यादा सही रहेगा. यह यही है.
दिलचस्प है कि इस घटना के बाद हरियाणा के कुछ नौजवानों की भी प्रतिक्रिया दिख रही है. उस प्रतिक्रिया की भाषा में मर्दाना ग़ुस्सा ज़्यादा है.
यह हरियाणा की इज़्ज़त का मसला नहीं है. यानी समस्या उस नज़रिए की है, जिसे हम मर्दाना नज़रिया कह रहे हैं.
इसलिए बड़ा सवाल है, इस दबंग मर्दाना नज़रिए को छोड़ लड़के संवेदनशील कैसे बनें?
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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