"मैं उस दिन अपने दादा के साथ जलियाँवाला बाग़ गया हुआ था. वहाँ अचानक गोलियाँ चलनी शुरू हो गई, मेरे दादा मुझे उठा कर सैनिकों से दूर की दीवार की तरफ़ दौड़ने लगे. जब उन्हें लगा कि बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं है, उन्होंने मुझे सात फुट ऊँची दीवार के पार फेंक दिया."
"नीचे गिरने से मेरी बाँह टूट गई, लेकिन मैं वो कहानी सुनाने के लिए ज़िंदा रहा. हम उस तकलीफ़ में भी कई दिनों तक अस्पताल नहीं गए, क्योंकि हमें डर था कि कहीं हम पर और ज़ुल्म न ढाए जाएं."
13 अप्रैल 1919 में अमृतसर में जलियाँवाला बाग़ में हुए इस हत्याकांड के वक़्त भरपूर सिंह सिर्फ़ 4 साल के थे. 2009 में हुई बातचीत में भरपूर सिंह ने ये आपबीती साझा की थी.
गोलियाँ चलाने का आदेश ब्रिगेडियर जनरल डायर ने दिया था और उनके साथ थे सार्जेंट एंडरसन, जबकि माइकल ओ डवायर पंजाब के लेफ़्टिनेंट गवर्नर जनरल थे. पर शुरुआती दिनों में इतने बड़े हत्याकांड की ज़्यादा चर्चा नहीं हुई थी.
लेकिन एक अकेले भारतीय शख़्स ने ब्रिटेन जाकर ब्रितानी अदालत में अपने दम पर जलियाँवाला हत्याकांड को लेकर एक ऐतिहासिक केस लड़ा था जो साढ़े पाँच हफ़्ते चला.
इस केस के ज़रिए दुनिया को जलियाँवाला बाग़ की दास्तां विस्तार से पता चली थी.
उस शख़्स का नाम था सर चेट्टूर शंकरन नायर और अक्षय कुमार की नई फ़िल्म केसरी -2 उन्हीं पर आधारित है.
उस वक्त के ग़ुलाम भारत से ब्रिटेन जाकर वहाँ की अदालत में केस लड़ना एक भारतीय के लिए जोख़िम भरा अनसुना कदम था, लेकिन शंकरन नायर ने ये किया और इतिहास रचा.
कौन थे शंकरन नायर ?शंकरन नायर के नाम भारतीय इतिहास में कई उपलब्धियाँ दर्ज हैं. शंकरन नायर का जन्म 1857 में पलक्कड़ में एक संपन्न परिवार में हुआ जब भारत में आज़ादी की पहली लड़ाई लड़ी जा रही थी.
पेशे से वकील नायर 1897 में इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष बने. वे मद्रास हाई कोर्ट में जज भी रहे और 1915 में वायसराय एग्ज़ीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य बने. उन्हें सर की उपाधि मिली हुई थी.
जलियाँवाला बाग़ के हत्याकांड का उन पर गहरा असर पड़ा. वायसराय काउंसिल का सदस्य होने के नाते शंकरन नायर को धीरे-धीरे प्रत्यक्षदर्शियों की गवाहियाँ सुनने को मिलने लगीं कि किस तरह निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलीं.
वो पंजाब में हुई घटनाओं को लेकर काफ़ी निराश हुए और उन्होंने वायसराय काउंसिल से इस्तीफ़ा दे दिया. उनकी तल्ख़ी का एक नमूना द केस दैट शुक दी एंपायर नाम की किताब में लिखी एक घटना से मिलता है.
किताब शंकरन नायर के ग्रेट ग्रैंडसन रघु पलट और उनकी पत्नी पुष्पा पलट ने लिखी है.
वे लिखते हैं, "वायसराय काउंसिल से इस्तीफ़ा देने के बाद वायसराय चेम्सफ़ोर्ड ने सर शंकरन नायर से पूछा कि क्या वो किसी अन्य भारतीय का नाम सुझा सकते हैं?
सर नायर ने महसूस किया कि वायसराय को एक भारतीय की सलाह में रत्ती भर दिलचस्पी नहीं थी. वो सवाल बस औपचारिकता भर थे. नौकरी के आख़िरी दिन वो ब्रितानी अफ़सर के सामने तंज करने से नहीं चूके."
"सर शंकरन नायर ने गंभीरता से कहा कि हाँ मैं नाम सुझा सकता हूँ. और दरवाज़े पर खड़े पगड़ी पहने दरबान राम प्रसाद की ओर इशारा किया और कहा -इसे क्यों नहीं ले सकते, ये लंबा है, हैंडसम है, और आपकी हाँ में भी हाँ मिलाएगा. ये कहकर उन्होंने वायसराय से हाथ मिलाया और चुपचाप चले गए."
हुआ यूँ कि शंकरन नायर ने 1922 में किताब लिखी 'गांधी एंड अनार्की' जिसमें उन्होंने गांधीजी की नीतियों से अहसमति जताई और साथ ही पंजाब के हालात के लिए ब्रितानी सरकार की आलोचना की. उनका इशारा इस ओर था कि पंजाब में जो ज़्यादतियाँ हुईं वो पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर जनरल माइकल ओ डवायर की जानकारी से हुईं.
इसके जवाब में डवायर ने शंकरन नायर पर ब्रिटेन में 1922 में मानहानि का मुक़दमा कर दिया कि वो माफ़ी माँगें, किताब को वापस लें और जुर्माना भरें, लेकिन शंकरन नायर ने इससे साफ़ इनकार कर दिया.
जब केस चला तो साढ़े पाँच हफ़्ते चले इस मुकदमे में जैसे-जैसे परतें खुलती गईं, दुनिया को जलियाँवाला बाग़ और पंजाब में हुई ज़्यादतियों के बारे में खुलकर पता चला.
ये उस समय चलने वाला सबसे लंबा सिविल केस था.
केस से एक दिन पहले नहीं था वकील'द केस दैट शुक दी एम्पायर' नाम की किताब में विस्तार से कोर्ट केस के बारे में बताया गया है.
मुक़दमा शुरू होने से ठीक एक शाम पहले शंकरन नायर के वकील सर जॉन साइमन ने केस लड़ने से मना कर दिया. आख़िरी पलों में उन्होंने सर वाल्टर को नया वकील नियुक्त किया.
किताब के मुताबिक़, " बहुत सारी बातें सर शंकरन नायर के ख़िलाफ़ थीं. एक भारतीय एक अंग्रेज़ के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों की ही अदालत में केस लड़ रहा था. जनरल डवायर के गवाह नामी-गिरामी लोग थे जो कोर्ट में ख़ुद मौजूद थे."
"वहीं शंकरन नायर के गवाह आम भारतीय थे और वो गवाह भी इंग्लैंड में नहीं, भारत में थे और उनकी गवाही भारत में ली गई. वो गवाहियाँ इंग्लैंड की कोर्ट में महज़ पढ़कर सुनाई गईं जिसका वो प्रभाव नहीं होता जो भाव सामने खड़े होकर दर्शाया जा सकता है."
"शंकरन के केवल दो गवाह इंग्लैंड में गवाही दे सके- गेराल्ड वाथेन जो 1919 में खालसा कॉलेज के प्रिंसिपल थे और सर हरकिशन लाल जो पंजाब में मंत्री रह चुके थे. उन्हें मार्शल लॉ के तहत जेल में बंद कर दिया गया था. वे अपने खर्चे पर लंदन गवाही देने आए थे."
किताब के मुताबिक़, "जब केस चल रहा था तो जलियाँवाला बाग़ कांड के बाद की गई उसे केस के दौरान जनरल डवायर को स्वीकार करना पड़ा और उन्होंने माना कि उनके आदेश पर ही एयरक्राफ्ट भेजे गए थे."
"उनसे पूछा गया कि गुजरांवाला के बाहर मासूम लोगों पर बमबारी करना और मशीनगन चलाना सही था?तो डवायर ने कहा कि हो सकता था कि ये गुजरांवाला से लोग पंजाब में अशांति फैलाने जा रहे हों. जब ओ डवायर से कसूर में स्कूली छात्रों को पीटने पर सवाल पूछा गया तो उनका कहना था कि पूरा स्कूल अशांति फैलाने की साज़िश में मिला हुआ था."
"जब पूछा गया कि लाहौर में तपती गर्मी में स्कूली बच्चों को 17 मील चलने का आदेश क्यों दिया गया? तो डवायर का कहना था कि बहुत सारे छात्र विद्रोही बन चुके थे. जलियाँवाला की बात हुई तो जज ने ज्यूरी से कहा कि सवाल ये है कि क्या 5 लाख लोगों की जान बचाने के लिए कुछ सौ लोगों को मारने का हक़ होना चाहिए या नहीं."
भारत और ब्रिटेन के अख़बारों में केस की कवरेज होने लगी और इस तरह केस के दौरान पंजाब में हुई गोलाबारी, हत्याएं, जलियाँवाला बाग़ और फौज में जबरन भर्ती के किस्से सामने आने लगे.
जज के रवैये को लेकर उठे थे सवालकेस में जज जस्टिस मैक्कार्डी के कथित पक्षपाती रवैये को लेकर गंभीर सवाल उठने लगे. हाउस ऑफ़ कॉमन्स तक में इस पर बहस हुई और उन्हें हटाने के लिए प्रस्ताव रखा गया.
डेली क्रॉनिकल ने केस के जज मैक्कार्डी की आलोचना की. वेस्टमिंस्टर गैज़ेट ने भी जज के बर्ताव की निंदा की.
डेली न्यूज़ ने इन घटनाओं को इंग्लैंड के सार्वजनिक हितों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बताया और जज के बर्ताव के प्रति खेद जताया. जज मैक्कार्डी ने बाद में ख़ुदकुशी कर ली थी.
12 सदस्यों वाली ज्यूरी में सब अंग्रेज़ थे. ज्यूरी सर्वसम्मति से फ़ैसला नहीं कर सकी और 11-1 से फ़ैसला शंकरन नायर के ख़िलाफ़ आया.
शंकरन नायर को माइकल डवायर ने पेशकश की थी कि अगर वो माफ़ी माँग लें तो उन्हें जुर्माना और केस का खर्च नहीं देना पड़ेगा.
किताब में लिखा गया है कि 6 जून 1924 में कोर्ट का वो दिन नायर के लिए मुश्किल भरा था, लेकिन शंकरन नायर ने माफ़ी माँगने से इनकार कर दिया.
हार के बावजूद अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई में उस केस को अहम माना जाता है. इस केस ने भारत में आज़ादी की मुहिम में एक नई जान फूँकी और महात्मा गांधी के जन आंदोलन को मज़बूत किया.
गांधी जी ने 12 जून 1924 को यंग इंडिया में लिखा था- "जज ने शुरू से ही पक्षपात किया. दिन-ब-दिन इस केस की रिपोर्ट पढ़ना दर्दनाक था. एक ब्रितानी जज वो सब खुलेआम कर सकता है जिसके लिए एक भारतीय को क़ीमत चुकानी पड़ती है."
"माइकल डवायर की चुनौती स्वीकार करके सर शंकरन नायर ने ब्रितानी संविधान और जनता को ट्रायल पर रख दिया था. इस हार में भी सर शंकरन नायर के साथ सारे भारतीयों की हमदर्दी है. मैं उनकी हिम्मत की दाद देता हूँ."
लंदन में है शंकरन नायर का पोर्टरेटआज भी जलियाँवाला बाग़ म्यूज़ियम में शंकरन नायर के प्रति सम्मान स्वरूप उनका प्लाक (पट्टिका) है. वहीं लंदन में नेशनल पोर्टरेट गैलरी में उनका पोर्टरेट है. भारत के आज़ाद होने से पहले ही 1934 में शंकरन नायर का निधन हो गया था.
जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड की जाँच के लिए बनी हंटर कमिटी के मुताबिक़, कुल 370 लोग मारे गए थे. लेकिन इतिहासकार मरने वालों की संख्या 1000 से 1500 के बीच बताते हैं.
शंकरन नायर पर बनी फ़िल्म केसरी -2 के बारे में अक्षय कुमार कहते हैं, "इससे पहले मुझे भी इस कोर्ट केस के बारे में पता नहीं था. ये फ़िल्म मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि इतिहास अंग्रेज़ों के हिसाब से लिखा गया है. मैं लोगों के सामने असल इतिहास लाना चाहता हूँ."
वैसे जलियाँवाला बाग़ में दूसरा नाम जिनका ज़िक्र आता है वो है डायर.
नाइजल कॉलेट ने डायर की बायोग्राफ़ी द बुचर ऑफ़ अमृतसर में लिखा है, "डायर के मुताबिक़ जो लोग अमृतसर के हालात जानते थे उन्होंने कहा कि मैंने ठीक किया, लेकिन कुछ कहते हैं मैंने ग़लत किया. मैं सिर्फ़ मरना चाहता हूँ और अपने भगवान से पूछना चाहता हूँ कि मैं सही था या ग़लत."
बीबीसी से बातचीत में नाइजल कॉलेट ने कहा कि ये माँग कई बार उठ चुकी है कि ब्रिटेन आधिकारिक रूप से जलियाँवाला बाग़ के लिए माफ़ी माँगे, लेकिन औपचारिक माफ़ी कभी नहीं माँगी गई है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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