दक्षिण-पूर्व एशिया के सबसे बड़े देश इंडोनेशिया ने बच्चों में कुपोषण से निपटने के लिए छह महीने पहले एक बड़ी योजना शुरू की है. इसके तहत स्कूल जाने वाले बच्चों को मुफ्त भोजन दिया जा रहा है.
यह राष्ट्रपति प्राबोवो सुबिअंतो की उस महत्वाकांक्षी योजना का हिस्सा है, जिसके तहत वह आने वाले बीस सालों में इंडोनेशिया को "स्वर्णिम देश" बनाना चाहते हैं. देश की आज़ादी के लगभग सौ साल पूरे होने पर वह इंडोनेशिया को उच्च आय वाले देश में बदलने का इरादा रखते हैं.
राष्ट्रपति का मानना है कि बच्चों में कुपोषण समाप्त करना इंडोनेशिया की अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिए ज़रूरी है. लेकिन लगभग सात सौ द्वीपों पर फैले आठ करोड़ बच्चों तक यह सुविधा पहुँचाना सिर्फ़ चुनौतीपूर्ण और महंगा ही नहीं, बल्कि विवादास्पद भी साबित हो रहा है.
इसीलिए इस हफ़्ते "दुनिया जहान" में हम यही जानने की कोशिश करेंगे कि क्या इंडोनेशिया स्कूली बच्चों को मुफ़्त भोजन देने का खर्च उठा पाएगा?
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इंडोनेशिया में बच्चों में कुपोषण एक बड़ी समस्या है. हर पांच में से एक बच्चे का कद उसकी उम्र के हिसाब से छोटा है और हर 14 में से एक बच्चा कद के हिसाब से बहुत दुबला है. इसकी वजह से भविष्य में इन बच्चों के विकास में बाधा आने और उनके बीमारियों का शिकार होने का ख़तरा बढ़ गया है.
विकास के लिए काम करने वाली ग़ैर सरकारी संस्था प्लान इंडोनेशिया की कार्यकारी निदेशक डीनी विद्यास्तुति के अनुसार कुपोषण की समस्या से निपटने में आ रही दिक्कतों के कई कारण हैं. बड़ी आबादी, विविध संस्कृतियां और शिक्षा की कमी इस समस्या से निपटने में मुश्किल खड़ी कर रही है.
देश के कई इलाकों तक पक्की सड़क नहीं है, इसलिए वहां सहायता पहुंचाना आसान नहीं है. वो कहती हैं कि इंडोनेशिया की आबादी 28.5 करोड़ है और यहां आर्थिक असमानता अधिक है.
देश में लगभग 17 हज़ार छोटे-बड़े द्वीप हैं जहां कई जातियों के समुदाय बसते हैं, जिनकी भाषाएँ भिन्न हैं. इतने विशाल क्षेत्र में विकास के लिए योजनाओं को लागू करना बड़ा चुनौतीपूर्ण है.
विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार देश की 60.3 प्रतिशत आबादी यानी 17 करोड़ 20 लाख लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं. इनमें से ज़्यादातर लोग देश के सबसे दूर और सबसे कम विकसित क्षेत्रों में रहते हैं.
पोषक आहार से पहले बच्चों को पीने के साफ़ पानी की ज़रूरत होती है. 2022 में यूनिसेफ़ के एक अध्ययन में पाया गया कि इंडोनेशिया के 70 प्रतिशत घरों में पहुंचने वाले पीने के पानी में गटर के पानी के अंश मौजूद थे.
देश में शिक्षा की कमी के कारण यह समस्या और भी विकट हो गई है. डीनी विद्यास्तुति ने कहा कि देश में ग़रीबी के कारण सभी को पोषक आहार उपलब्ध नहीं हो पाता. मगर इसका दूसरा कारण साफ़ पानी की कमी और सफ़ाई के महत्व के प्रति जागरुकता की कमी भी है.
डीनी विद्यास्तुति का कहना है कि उनकी संस्था ने पाया है कि अक्सर देश में बच्चों के अभिभावकों को पता नहीं होता कि बच्चों को किस प्रकार का पोषक आहार देना चाहिए, कई बच्चे अपने माता-पिता के पास नहीं बल्कि अपने दादा-दादी या दूसरे रिश्तेदारों के यहां पलते हैं क्योंकि उनके माता-पिता काम के लिए दूसरे इलाकों में चले जाते हैं.
इसलिए देश के विकास के लिए बच्चों में कुपोषण की समस्या को हल करना सबसे ज़रूरी है, जिसके लिए स्कूल में बच्चों को मुफ़्त भोजन देने की योजना काफी अहम है.
डीनी विद्यास्तुति मानती हैं कि अगर बच्चे कुपोषित होंगे तो ठीक से पढ़ाई भी नहीं कर पाएंगे. इसका मतलब यह है कि इससे इंडोनेशिया का मानव संसाधन या लोगों की क्षमता घट जाएगी.
स्कूली बच्चों को मुफ़्त भोजन उपलब्ध कराना राष्ट्रपति की विकास की व्यापक योजनाओं का हिस्सा है.
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1990 के दशक से पहले तीस सालों तक इंडोनेशिया पर राष्ट्रपति सुहार्तो का तानाशाही शासन रहा. सुहार्तो के इस्तीफ़े के बाद इंडोनेशिया में लोकतांत्रिक सुधार का दौर शुरू हुआ.
2024 में प्राबोवो सुबिअंतो देश के राष्ट्रपति बने. सेना के इस पूर्व जनरल पर सुहार्तो के शासन काल में युद्ध अपराध और मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगे.
लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने अपनी छवि को बदलने की कोशिश की और अपने आपको एक ऐसे बुज़ुर्ग नेता के तौर पर पेश किया जो देश की अर्थव्यवस्था को विकसित करना चाहते हैं, वहां विदेशी निवेश बढ़ाना चाहते हैं और बच्चों में ग़रीबी और कुपोषण का अंत करना चाहते हैं.
जूलिया लाउ सिंगापुर की आयसीज़ यूसुफ़ इशाक इंस्टिट्यूट में इंडोनेशिया अध्ययन विभाग की वरिष्ठ शोधकर्ता हैं.
हमने जूलिया लाउ से बात की और उनसे जानना चाहा कि राष्ट्रपति प्राबोवो सुबिअंतो की इंडोनेशिया के भविष्य के बारे में क्या योजना है?
जूलिया लाउ ने कहा, "अपने चुनाव प्रचार के दौरान प्राबोवो ने लोकलुभावन वादे किए थे. उन्होंने युवा माताओं और बच्चों को हफ़्ते में पांच दिन, दिन में तीन बार मुफ़्त भोजन उपलब्ध कराने और ग़रीब तबके को आर्थिक सहायता का वादा किया था. उन्होंने देश की खाद्य सुरक्षा और ऊर्जा के मामले में आत्म निर्भरता पर भी बल दिया था."
जूलिया लाउ यह भी कहती हैं कि मुफ़्त भोजन उपलब्ध कराने के लिए देश के कुल बजट का दस प्रतिशत हिस्सा खर्च करना पड़ेगा. आठ करोड़ से अधिक लोगों को मुफ़्त खाना खिलाने का लक्ष्य था. यह योजना 6 महीने से लागू है लेकिन केवल 50 लाख लोगों को ही मुफ़्त भोजन दिया जा रहा है.

इससे यह सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या यह देश की समस्या सुलझाने का सही तरीका है? ढांचागत सुविधाओं की कमी के कारण इस योजना को सीमित तौर पर ही लागू किया जा सका है.
जूलिया लाउ सवाल उठाती हैं कि क्या इतनी बड़ी आबादी के लिए खाना बनाने के लिए पर्याप्त रसोइए उपलब्ध हैं? क्या उनका स्तर वैसा है, जैसा कि दावा किया जा रहा है?
"कुछ बच्चे फ़ूड पॉइज़निंग का शिकार हो गए. अपनी सरकार के पहले साल में प्राबोवो देश को नतीजे दिखाना चाहते थे, इसलिए यह योजनाएं जल्दबाज़ी में कार्यान्वित की गईं और कई महत्वपूर्ण बातों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया."
मगर क्या इस महत्वाकांक्षी योजना को कार्यान्वित करने में आ रही दिक्कतों का संबंध बड़ी आबादी और राजनीतिक व्यवस्था के काम करने के तरीकों से भी है? क्या इसके ज़रिए राजनीतिक फ़ायदा कमाने की कोशिश भी हो रही है?
जूलिया लाउ का जवाब था, "इस योजना के कार्यान्वयन में पारदर्शिता की कमी है. जनता को पता नहीं चल रहा है कि इसे लागू करने में समस्याएं क्यों आ रही हैं. शायद इसे ऐसी जल्दबाज़ी में लागू नहीं किया जाना चाहिए था. दरअसल राष्ट्रपति प्राबोवो इसके ज़रिए अपनी प्रतिष्ठा को भी ऊंचा करना चाहते हैं. वो अपने आपको एक ऐसे राष्ट्रपति के रूप में पेश करना चाहते थे, जिन्होंने देश की सारी समस्याएं हल कर दीं."
ऐसा नहीं है कि इस प्रकार की बड़ी योजना को लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि एशिया के एक देश ने यह कर दिखाया है. भारत की मिड डे मील योजना.
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2001 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए कहा था कि सभी सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त प्राथमिक स्कूलों में सभी बच्चों को पकाया हुआ पौष्टिक आहार मिलना चाहिए.
कोर्ट ने आहार को संवैधानिक अधिकार करार दिया था. यह कदम भुखमरी और कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए किए जा रहे प्रयासों में से एक था.
इस बारे में हमने बात की डॉ. सुमन चक्रवर्ती से, जो दिल्ली में इंटरनेशनल फ़ूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट में सह शोधकर्ता हैं.
उन्होंने बताया कि इसकी प्रेरणा भारत के तमिलनाडु और केरल जैसे दक्षिणी राज्यों से मिली, जहां प्रयोग के तौर पर ग़रीबों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए योजनाएं चलाई जा रही थीं.
"उस समय भारत में खाद्य सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बन गया था. इन योजनाओं की सफलता के किस्सों को संज्ञान में लेकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से इन योजनाओं को देश भर में लागू करने को कहा. तो निश्चित ही यह योजना सुप्रीम कोर्ट की पहल के कारण शुरू हुई."
इस योजना के दो उद्देश्य थे. पहला उद्देश्य बच्चों को स्कूल की ओर आकर्षित करना था क्योंकि उस समय देश में साक्षरता की दर और स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या बहुत कम थी, खास तौर पर लड़कियों की संख्या काफ़ी कम थी.
डॉक्टर सुमन चक्रवर्ती का कहना है कि उस समय लड़कियों को स्कूल जाने के लिए बहुत कम प्रोत्साहित किया जाता था. कई क्षेत्रों में इसके सांस्कृतिक कारण थे और कई माता-पिता सोचते थे कि आख़िर में इन लड़कियों की शादी ही करनी है, इसलिए उन्हें स्कूल भेजने का ख़ास फ़ायदा नहीं है. मगर स्कूल में मुफ़्त भोजन की व्यवस्था से प्रोत्साहित हो कर उन्होंने बच्चियों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया जिससे उनकी शिक्षा का स्तर बढ़ा.
स्कूल की मिड डे मील योजना का दूसरा उद्देश्य बच्चों में कुपोषण की समस्या को हल करना था. डॉक्टर सुमन चक्रवर्ती ने बताया कि भारत के कई राज्यों में पर्याप्त संख्या में स्कूल नहीं थे, जिससे वहां शिक्षा का स्तर कम था जिसके चलते ग़रीबी भी अधिक थी.
इसलिए सबसे पहले इस ढांचागत समस्या के हल के लिए अधिक स्कूल बनाए गए, जिसके बाद स्कूल के साथ लग कर रसोइयां बनायी गईं जहां बच्चों के लिए खाना पकाया जा सके. यह एक बहुत बड़ी चुनौती थी, जिसके लिए बड़ी मात्रा में पैसों की ज़रूरत थी.
डॉ. सुमन चक्रवर्ती कहती हैं कि निश्चित ही इससे लाभ हुआ. स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति बढ़ गई. स्कूलों में शिक्षा का स्तर भी सुधर गया. बहुत जल्द इसके कई फ़ायदे साफ़ दिखाई देने लगे.
"हमने देखा कि बच्चों को मिड डे मील का फ़ायदा मिला. उनका अच्छी तरह से शारीरिक विकास हुआ. सेहत को लेकर उनमें अधिक जागरुकता आई. हमने पाया कि इस योजना से केवल एक पीढ़ी को नहीं बल्कि उनके बाद आने वाली पीढ़ी को भी फ़ायदा हुआ."
डॉ. सुमन चक्रवर्ती का कहना है कि बाद में इस योजना से अर्थव्यवस्था को भी फ़ायदा हुआ. वो कहती हैं कि अगर लोगों का विकास अच्छा होगा, पोषण अच्छा होगा तो उनकी उत्पादकता और कौशल में भी बढ़ोतरी होगी, जिससे देश की अर्थव्यवस्था को फ़ायदा होगा.
लेकिन इस लक्ष्य को प्राप्त करने में समय लगता है और इस दौरान कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. भारत की मिड डे मील योजना से प्रेरित होकर इंडोनेशिया ने जो योजना शुरू की है वहां भी ऐसी चुनौतियां सामने आ रही हैं.
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अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए राष्ट्रपति प्राबोवो ने सार्वजनिक खर्च में कटौती शुरू कर दी. जनवरी में उन्होंने सरकारी खर्च में कुल बजट का आठ प्रतिशत कम कर दिया. विडंबना यह है कि इस कटौती की मार शिक्षा बजट पर भी पड़ी.
इस कटौती के ख़िलाफ़ हज़ारों छात्र-छात्राओं ने देश भर में विरोध प्रदर्शन किए. स्टूडेंट्स ने इन विरोध प्रदर्शनों को 'स्याह इंडोनेशिया' नाम दिया. यह नाम राष्ट्रपति की स्वर्णिम इंडोनेशिया योजना पर तंज के तौर पर दिया गया था.
इंडोनेशिया स्थित शोध कार्य से जुड़ी संस्था सेंटर फॉर इकोनॉमिक एंड लॉ स्टडीज़ के कार्यकारी निदेशक भीमा युधिस्टिरा के अनुसार छात्रों का मानना है कि यह योजना शिक्षा की ज़रूरतों को पूरा नहीं कर रही.
स्थानीय सरकारें और बेरोज़गार लोग भी मुफ़्त भोजन योजना का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि इसे लागू करने के लिए कई आवश्यक सेवाओं में कटौती की जा रही है, जिससे रोज़गार के अवसर घट रहे हैं और सरकारी कटौती के चलते स्थानीय अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ रहा है.
इंडोनेशिया की सरकार के सामने एक चुनौती यह है कि मुफ़्त भोजन योजना के लिए धन जुटाने के लिए कामकाज के तरीकों को अधिक प्रभावी और किफ़ायती कैसे बनाया जाए. यहां सरकार के सामने चुनौती है, चावल की कीमत.
एक दूसरी चुनौती- चावल की कीमतचावल इंडोनेशिया के आहार का प्रमुख हिस्सा है. इंडोनेशिया एक प्रमुख चावल उत्पादक देश रहा है मगर उसे अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए बड़ी मात्रा में चावल आयात करना पड़ता है.
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में चावल की कीमतों के उतार-चढ़ाव का असर भी देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है. भीमा युधिस्टिरा कहते हैं कि बाढ़ और जलवायु परिवर्तन की वजह से चावल उत्पादन पर बुरा असर पड़ रहा है.
"सभी मुफ़्त भोजन योजनाओं में चावल को शामिल करने की ज़रूरत नहीं है. इस योजना में स्थानीय खाद्यान्नों का इस्तेमाल होना चाहिए जिससे स्थानीय किसानों और लोगों को रोज़गार मिलेगा. साथ ही बच्चों को स्कूल में वैसा ही खाना मिलेगा जैसा उनके घर में पकता है."
कई छोटे उद्योग मुफ़्त भोजन योजना का विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इस योजना में इस्तेमाल होने वाला खाना सेना द्वारा तैयार किया जाता है और इसमें परोसा जाने वाला मुर्गी का मांस बड़े पोल्ट्री फ़ार्मों से आता है.
भीमा युधिस्टिरा कहते हैं कि इससे छोटे स्थानीय व्यापारियों के हाथ से व्यापार का अवसर निकल जाता है. साथ ही, इससे राष्ट्रपति प्राबोवो के देश में अधिक रोज़गार पैदा करने का वादा भी पूरा नहीं हो सकता.
इस योजना में सेना की भूमिका इसलिए भी विवादों के घेरे में है क्योंकि उसकी बैरक में पकाए गए फ्राइड चिकन खाने से जावा में कथित तौर पर चालीस बच्चे बीमार पड़ गए.
मगर क्या यह योजना कुपोषण की समस्या हल कर पाएगी?
भीमा युधिस्टिरा मानते हैं कि अगर अगले साल तक सरकार इस योजना के लिए अधिक धन नहीं जुटा पाई तो उसे और कटौतियां करनी पड़ेंगी, जो कि इंडोनेशिया की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं होगा.
वो कहते हैं कि बेहतर तो यह होगा अगर परिवारों की आय बढ़ाई जा सके ताकि वो बच्चों और माताओं के लिए पोषक आहार का प्रबंध कर सकें.
तो क्या इंडोनेशिया स्कूली बच्चों को मुफ़्त भोजन दे पाएगा? यह एक महत्वाकांक्षी योजना है, लेकिन यह राजनीति से प्रेरित है. इसे लागू करने में कई चुनौतियां आ रही हैं और शिक्षा सहित कई आवश्यक सरकारी सेवाओं पर होने वाले खर्च में कटौती की जा रही है.
इस योजना की आलोचना भी हो रही है लेकिन भविष्य के लिए बच्चों के स्वास्थ्य की सुरक्षा भी अत्यंत महत्वपूर्ण है. मगर क्या इंडोनेशिया यह कर पाएगा? अगर राष्ट्रपति इसके कार्यान्वयन में आ रही चुनौतियों से निपट पाएं तो हो सकता है सरकार इसका खर्च उठा लेगी.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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