भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम हो गया। इसकी घोषणा इन दो देशों ने नहीं, अमेरिका ने की। दोनों तरफ हो सकने वाली बर्बादी और खराबी से हम बच गए। बहुत सारे निरपराध लोग मारे जाने से बच गए, इसलिए युद्धविराम का बहुत स्वागत। जैसा कि कहा जा रहा है, युद्धविराम हमेशा मानवता के पक्ष में होता है।
अब जो संक्षिप्त युद्ध हुआ, उसका नफा-नुकसान का हिसाब लगाया जाने लगा है। भारत ने उसके कुछ नागरिकों पर किए गए आतंकी हमले का बदला पाकिस्तान के कुछ आतंकवादियों के ठिकानों और प्रशिक्षण-शिविरों पर हमला कर ले लिया। मिट्टी में मिलाने और घर में घुसकर मारने की सीमा भी सामने आ गई। हम पाकिस्तान में घुस गए तो वह भी हमारे जम्मू तक आ गया। कुछ हथियारों और टेक्नोलॉजी की आजमाइश हो गई। यह समझ में आ गया है शायद कि हम दो देश अपना पड़ोस न तो बदल सकते हैं और न ही किसी उन्माद में नष्ट।
गोदी मीडिया ने उन्माद को बढ़ाने, अतिरंजित करने, तथ्यों से उलट तरह-तरह के झूठ गढ़ने और फैलाने में अपनी बेशर्म सत्ता-भक्ति का नया और निकृष्ट प्रतिमान स्थापित किया। स्वयं सत्ता की ओर से संयत और शिष्ट भाषा में विवरण दिए जाते रहे। गोदी मीडिया के अतिचार पर कोई कार्रवाई होने की उम्मीद नहीं है, पर ऐसी कार्रवाई कानूनी ढंग से होनी जरूर चाहिए।
इतनी कम अवधि में चले युद्ध में कितने जान-माल का नुकसान हुआ है, इसका कोई प्रामाणिक आकलन अभी तक सामने नहीं आया है। आज का संसार कम-से-कम दो लंबे युद्ध होते अविचलित भाव से देखता आया है। उसमें अगर हमारे युद्ध को लेकर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई, तो इसमें अचरज नहीं।
अलबत्ता यह नोट करने की बात है कि हमारे साथ कोई खड़ा नहीं हुआ। सलाह, संयम आदि की बात की गई और यह भी माना गया कि भारत के पास उस पर हुए आतंकी हमले का समुचित उत्तर देने का अधिकार है। हमारे दूसरे पड़ोसी देशों में से किसी ने हमारे अनुकूल कुछ नहीं कहा।
यह भी स्पष्ट है कि संसार में युद्धों का संबंध सिर्फ किन्हीं नैतिक या रणनीतिक लक्ष्यों से नहीं होता। पश्चिम के कई देश, खासकर अमेरिका, चाहते हैं कि युद्ध होते रहें ताकि वे अपने हथियार लड़ते देशों को भारी संख्या में बेचते रह सकें। आज हम ऐसी दुनिया में हैं जो इतिहास में सबसे हथियारबंद दुनिया है। युद्ध वैसे भी खर्चीले होते हैं और उनका बोझ देश की आर्थिक व्यवस्था को उठाना पड़ता है। अभी यह स्पष्ट नहीं है भारत की अर्थव्यवस्था पर कितना बोझ पड़ने वाला है। युद्धविराम का एक विधेयात्मक प्रतिफल यह होगा कि शायद यह बोझ अधिक होने से रुक गया।
दूसरे महायुद्ध के बाद संसार भर में शांति, निरस्त्रीकरण आदि के पक्ष में जो अभियान चला था, उसकी आज किसी को शायद याद भी नहीं आती। पर आज मनुष्यता को बचाने के लिए, उसकी बहुलता-संभावना को व्यापक और मान्य करने के लिए ऐसा अभियान शिद्दत से चलना चाहिए। नई तकनीक उसे विश्व-व्यापी बनाने में सक्षम है।
किसी देश के लोग, भारत और पाकिस्तान के लोग भी युद्ध नहीं चाहते और इस विशाल नागरिकता को ही शांति के लिए सन्नद्ध और सक्रिय होना होगा। बहुत धुंधलका है, इसलिए ऐसी किसी कोशिश की कोई सुगबुगी नजर नहीं आती। पर वह होगी जरूर, हमारे यहां और हमारे पड़ोस में भी।
एक युद्धगीत
25 बरस से कुछ अधिक समय हुआ, जब करगिल युद्ध हुआ था। उस समय उसके समर्थन और जयकार में कुछ शास्त्रीय कलाकारों ने नई दिल्ली के एक सभागार में एक कला-संध्या आयोजित की थी। मुझे उसमें कवि के रूप में शिरकत करने के लिए आमंत्रित किया गया था।
मैंने अपनी कविता ‘अपने साढ़े छह महीने के पोते के लिए एक युद्धगीत’ पढ़ी थी जो मेरे संग्रह ‘समय के पास समय’ (राजकमल, 2000) में संकलित है। उसके अंतिम दो अंश इस प्रकार हैं:
साहस एक पवित्र शब्द है।
बलिदान एक पवित्र शब्द है।
प्रतिरोध एक पवित्र शब्द है।
पर युद्ध को पवित्र शब्द कहना संभव नहीं,
भले वह हम पर थोपा ही क्यों न गया हो!
युद्ध के साथ चली आती है मृत्यु,
भले युद्ध के बाद,
उसकी सारी तबाही-बर्बादी के बाद,
संसार में बचता है फिर भी जीवन ही, मृत्यु नहीं।
शहादत को याद करता और अक्सर भुलाता हुआ
जीवन ही बचता है,
मेरे लाडले,
युद्ध के बाद-
फिर भी, युद्ध एक पवित्र शब्द नहीं है।
हर युद्ध के साथ कुछ सुंदर और पवित्र नष्ट होता है।
युद्ध अक्सर होता है भाइयों और पड़ोसियों के बीच,
हमसे लड़ने कहीं और से दुश्मन नहीं, भाई और पड़ोसी ही आते हैं-
इसलिए युद्ध एक पवित्र शब्द कभी नहीं हो पाता।
संसार का सारा सच तेरी निश्छल आंखों में समा गया है
और तू अपने सपने में सोया मुस्करा रहा है:
हम अपने धूल-धक्खड़ और कीचड़-खून सने सच में लिथड़े हैं।
सब कह रहे हैं सयाने और जिम्मेदार कि अब
मारने और मरने के अलावा किसी और के लिए समय नहीं रह गया है।
फिर भी, मैं एक अधेड़ कवि,
बिना थके-हारे और बिना किसी कायर उल्लास में शामिल हुए,
जानता हूं कि अभी भी न सिर्फ तेरे लिए
और दुनिया के तमाम बच्चों के लिए
बल्कि सबके लिए, सुंदर और पवित्र को बचाने के लिए
प्रार्थना में हाथ उठाने और सिर झुकाने का समय है−
प्रार्थना भी एक लड़ाई है
निश्छल सपनों और कीचड़-खून सने सच के बीच
उस जगह को बचाने की
जहां से हम सुंदर और पवित्र की ओर लौट सकते हैं।
आ, बिना जाने-समझे,
निश्शब्द,
मेरे पोते,
प्रार्थना में अपने अभय हाथ उठा।